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आति॑ष्ठ वृत्रह॒न् रथं॑ यु॒क्ता ते॒ ब्रह्म॑णा॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॒ꣳ सु ते॒ मनो॒ ग्रावा॑ कृणोतु व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीतो॒ऽसीन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिन॑ऽए॒ष ते॒ योनि॒रिन्द्रा॑य त्वा षोड॒शिने॑ ॥३३॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। ति॒ष्ठ॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। रथ॑म्। यु॒क्ता। ते॒। ब्रह्म॑णा। हरी॒ऽइति॒ हरी॑। अ॒र्वा॒चीन॑म्। सु। ते॒। मनः॑। ग्रावा॑। कृ॒णो॒तु॒। व॒ग्नुना॑। उ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑। ए॒षः। ते॒। योनिः॑। इन्द्रा॑य। त्वा॒। षो॒ड॒शिने॑ ॥३३॥

यजुर्वेद » अध्याय:8» मन्त्र:33


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब प्रकारान्तर से गृहस्थ का धर्म्म अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (वृत्रहन्) शत्रुओं को मारनेवाले गृहाश्रमी ! तू (ग्रावा) मेघ के तुल्य सुख बरसानेवाला है, (ते) तेरे जिस रमणीय विद्या प्रकाशमय गृहाश्रम वा रथ में (ब्रह्मणा) जल वा धन से (हरी) धारण और आकर्षण अर्थात् खींचने के समान घोड़े (युक्ता) युक्त किये जाते हैं, उस गृहाश्रम करने की (आतिष्ठ) प्रतिज्ञा कर, इस गृहाश्रम में (ते) तेरा जो (मनः) मन (अर्वाचीनम्) मन्दपन को पहुँचता है, उसको (वग्नुना) वेदवाणी से शान्त भलीप्रकार कर, जिससे तू (उपयामगृहीतः) गृहाश्रम करने की सामग्री ग्रहण किये हुए (असि) है, इस कारण (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य के लिये (त्वा) तुझ को उपदेश करता हूँ, कि जो (एषः) यह (ते) तेरा (योनिः) घर है, इस (षोडशिने) सोलह कलाओं से परिपूर्ण (इन्द्राय) परमैश्वर्य्य देनेवाले गृहाश्रम करने के लिये (त्वा) तुझ को आज्ञा देता हूँ ॥३३॥
भावार्थभाषाः - गृहाश्रम के आधीन सब आश्रम हैं और वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार से जिस गृहाश्रम की सेवा की जाय, उससे इस लोक और परलोक का सुख होने से परमैश्वर्य्य पाने के लिये गृहाश्रम ही सेवना उचित है ॥३३॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रकारान्तरेण गृहस्थधर्म्ममाह ॥

अन्वय:

(आ) (तिष्ठ) (वृत्रहन्) वृत्रान् शत्रून् हन्ति तत्सम्बुद्धौ (रथम्) रमणीयं विद्याप्रकाशं यानं वा (युक्ता) युक्तौ (ते) तव (ब्रह्मणा) जलेन धनेन वा (हरी) हरणशीलौ धारणाकर्षणगुणाविवाश्वौ (अर्वाचीनम्) अधोगामि (सु) (ते) तव (मनः) अन्तःकरणम् (ग्रावा) मेघः, ग्राव इति मेघनामसु पठितम्। (निघं०१.१०) (कृणोतु) (वग्नुना) वाण्या, वग्नुरिति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं०१.११) (उपयामगृहीतः) उपयामा सामग्री गृहीता येन सः (असि) (इन्द्राय) परमैश्वर्य्याय (त्वा) त्वाम् (षोडशिने) प्रशस्ताः षोडश कला विद्यन्ते यस्मिंस्तस्मै (एषः) गृहाश्रमः (ते) तव (योनिः) गृहम् (इन्द्राय) ऐश्वर्य्यप्रदाय गृहाय (त्वा) त्वाम् (षोडशिने)। अयं मन्त्रः (शत०४.५.४.१-९) व्याख्यातः ॥३३॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे वृत्रहन् ! ग्रावेव सुखवर्षिता गृहस्थ ! ते तव यत्र रथे ब्रह्मणा सह हरी युक्ता युक्तौ स्वीक्रियेते तं त्वमातिष्ठास्मिन् गृहाश्रमे ते तव यन्मनोऽर्वाचीनमनुत्कृष्टगति जायते तद् वग्नुना वेदवाचा भवान् शान्तं कृणोतु, यतस्त्वमुपयामगृहीतोऽस्यतः षोडशिन इन्द्राय त्वा त्वामुपदिशामि। हे गृहाश्रममभीप्सो ! एष ते योनिरस्ति। अस्मै षोडशिन इन्द्राय त्वा त्वां नियुनज्मीति ॥३३॥
भावार्थभाषाः - गृहाश्रमाधीना एव सर्व आश्रमास्ते वेदोक्तसद्व्यवहारेण सेविताः सन्तोऽभ्युदयनिःश्रेयससुखसम्पत्तये भवन्त्येवातः परमैश्वर्य्यप्राप्तये गृहाश्रम एव सेव्य इति ॥३३॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व आश्रम गृहस्थाश्रमावर आधारित आहेत. वेदोक्त श्रेष्ठ व्यवहार करून गृहस्थाश्रम पार पाडल्यास इहलोक व परलोकाचे सुख प्राप्त होते म्हणून परम ऐश्वर्य प्राप्तीसाठी गृहस्थाश्रमच योग्य होय.